ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही
ज़िंदगी कहीं न कहीं हँसती रही
हँसाकर फिर रोती रही
ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही
भुल कर भुले क्या भुलती रही
यादों की सौगात बुनती रही
स्मरण कर दर्दमें तड़पती रही
ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही
सुनी राहें साथी ढूढ़ती रहीं
ढूँढकर भी तलाशती रही
भीड़में भी तन्हाई देती रहीं
ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही
सफ़र तय है करना, कहती रही
आएं ऐसे जाना समझाती रही
समझकर भी उलझाती रही
ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही
सटीक एक दर्पण दिखाती रही
आस्था का आसार देती रही
सांसो का फ़साना सींचती रही
ज़िंदगी कहीं न कहीं रोती रही