ये कैसी जंग है,
खुद से ही लड़ रहा हूँ मैं।
जितना आगे बढ़ता हूँ,
उतना ही पिछड़ रहा हूँ मैं।
विस्तार था मेरा क्षितिज तक,
स्वच्छंद विचरण करता रहा,
एक ही बिन्दु में खुद को जकड़ रहा हूँ मैं।
आसमान को छूने की चाहत में,
पर फैलाए उड़ता रहा,
लगी जब वास्तविकता की चोट,
अपने ही भीतर धीरे-धीरे गड़ रहा हूँ मैं।
लिए सौरभ महकता रहा,
कल्पना की गलियों में,
गंध आने लगी है अब,
जैसे भीतर ही भीतर सड़ रहा हूँ मैं।
ये कैसी जंग है,
खुद से ही लड़ रहा हूँ मैं।
🖊️सुभाष कुमार यादव