आफ़ताब के पीछे चलते हुए, ये अंधेरे क्या है..
जागती रातों की आंखों के नीचे,ये घेरे क्या है..।
मेहताब के बगैर देखिए, रातें तो गुज़र जाएगी..
मगर उदास शक्ल ओढ़े हुए, ये सबेरे क्या है..।
मेरे आस–पास आज सभी, अजनबी ही क्यूँ हैं..
मुखौटे से लगे हुए, एक–सरीखे ये चेहरे क्या हैं..।
कहने को तो हज़ार अफसाने हैं, मेरे भी दिल में..
उनके रूबरू फिर शब्द जुबां पर, ये ठहरे क्या है..।
उनकी आंखों में डूबने का, मुझे हौसला ना हुआ..
समन्दर से भी कुछ जियादा, आंसू ये गहरे क्या हैं..
पवन कुमार "क्षितिज"