"ग़ज़ल"
अब के भी दिन बहार के न रास आ सके!
दिल की कली खिली न हम मुस्कुरा सके!!
लौह-ए-हस्ती से चाह कर भी न ख़ुद को मिटा सके!
मेरे मालिक मुझे बुला ले अगर तू बुला सके!!
ये ख़ित्ता जल रहा है अब नफ़रत की आग में!
ये आग नहीं वो आग जिसे पानी बुझा सके!!
मैं ने अपना नाम हर इक दिल पे लिख दिया है!
भुला दे ये दुनिया अगर मुझ को भुला सके!!
कोशिश तो बहुत की मगर नाकाम ही रहे!!
तुम को भुला सके कभी न तुम को पा सके!!
मेरे पैरों में पड़ीं थीं ग़ुर्बत की बेड़ियाॅं!
तुम चल के दो क़दम न मेरे पास आ सके!!
शायद अपनी-अपनी जगह मजबूर थे दोनों!
तुम पास आ सके न हम दूर जा सके!!
अपनों के लिए 'परवेज़' तो जीते हैं सभी!
वो इंसान क्या जो ग़ैरों के न काम आ सके!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad
The Meanings Of The Difficult Words:-
*लौह-ए-हस्ती=तख़्ती-ए-वजूद अर्थात दुनिया (the board of existence or life, that is, the world); *ख़ित्ता=देश (country); *ग़ुर्बत=ग़रीबी (poverty); *बेड़ियाॅं=ज़ंजीरें (fetters or shackles or leg-irons).