वो जो सपनों का शहर था, वो पलकों में आ बिखरता रहा, मैं तमाम उम्र उन इंसानों को जीते हुए मरता रहा।
किसी के हाथ में दौलत थी, किसी की आँख में तकलीफ़ सदा, वो आँसू जो ज़मीन तक न आए, वो ज़ेहन में उतरता रहा।
मैंने हर अहद (वादा) को टूटते हुए देखा है ख़ामोशी से हर दौर, वो जो प्यार था कल तक, आज वो नफ़रत में बदलता रहा।
ये कैसी दौड़ थी, मंज़िल का निशाँ किसी को मालूम नहीं, हर शख़्स ख़ुद से आगे निकलने की धुँद में भटकता रहा।
अरे वो झूठ जो हर जुबाँ पे एक ईमानदारी था, वही सच की लाश को हर सुबह कब्रिस्तान तक ढोता रहा।
जिसे क़िस्मत कहा गया, वो बस इंसान का ख़ुद से फ़रेब (धोखा) था, वो काम जो कल पे टाल दिया, वो क़र्ज़ आगे बढ़ता रहा।
यहाँ हर रंग की पहचान थी, हर ज़ात का घमंड क़ायम था, मगर अंजाम तो सबका एक था, वो फ़ासला क्यूँ मिटता न रहा?
मैं वक्त हूँ, मुझे क्या हक है कि मैं किसी को रोकूँ, बस वो पल जो ख़ुशी के थे, वो तेज़ी से गुज़रता रहा।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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