जीवन का निर्मल प्रतिबिंब लिए,
वृक्ष सदा संग तेरे हवा बन चलता है।
है धरा का अमृत कल्पवृक्ष अतीव दिव्य,
फिर भी हे मनु! क्यों तू वृक्षों को नित्य छलता है।
जीवन का सुंदर अनुराग इन्हीं से,
अप्रतिम सौभाग्य तेरा,इन्हीं से सरता है।
जिन वृक्षों से लेता है,तू अमृत-सांस जीवन का,
हे मनु ! क्यों तू उन वृक्षों का अनवरत सांस हरता है।
वर्षा इन्हीं से,हरियाली इन्हीं से।
प्राणी जगत का पेट सदा, इन्हीं से भरता है।
आधि-व्याधि नाना विकार,तेरे इसी से मिटता है।
फिर हे मनु ! क्यों तू वृक्षों को,निरंतर नष्ट करता है।
पक्षियों का सुंदर नीड़ इन्हीं से।
थके पथिक का,आनंदमय विश्राम इन्हीं से।
इन्हीं से सजती अनुपम प्रकृति,सुंदर,अतिसुंदर।
फिर हे मनु! क्यों तू सतत,प्रकृति की सुंदरता हरता है।
जो वृक्ष ना होते धरा पर तो,
सांस कहां से ले पाता तू?
फल-फूल असीम छाया,
फिर हे मनु! कहां से लाता तू?
ये वृक्ष नहीं,है अमृत-संजीवनी,
इन्हीं से जीवन-स्वर्ग सजता है।
जान इन्हीं से,पहचान इन्हीं से,
इन्हीं से जन्म-जन्म सुधरता है।
हे मनु! वृक्ष हैं तेरे जीवनदाता,
क्यों नहीं तू इन्हे नित पूजता है।
कवि- पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा। (ओडिशा)