नदी के प्रवाह सी भक्ति
भक्ति हो तो ऐसी हो
जो नदी के प्रवाह सी हो,
जिसकी प्रवाहित धारा
समुद्र से मिलने को आतुर हो।
किनारों के बाँध, पत्थरों की ठोकरें सहती
बाहर भीतर के कोलाहल को अनदेखा करती,
हवा के साथ सुर सजाती,
तरंगों के साथ अपने साज़ बनाती।
गुनगुनाती,लहराती,संगीत सुनाती,
बेपरवाह अपने साजन से मिलन की चाह में
उमड़ती,बहती,दौड़ती चली जाती।
वन्दना सूद
सर्वाधिकार अधीन है