बैअत ने सर उठाया जो इन्कार के ख़िलाफ़।
मक़तल में सब्र आगया तलवार के ख़िलाफ़।
हम हैं हमारे साथ हैं पेड़ों की अंजुमन,
जो चल रही है कार की रफ़्तार के ख़िलाफ़।
पहले तो वह नहीं था मगर आज उसको भी,
शहरे सितम ने कर दिया लाचार के ख़िलाफ़।
जब उसकी जेब हो गई कंगाल एक दिन,
तो हो गया तबीब भी बीमार के ख़िलाफ़।
खुशबू ने और गुल ने हवाओं ने मिलके आज,
की हैं हज़ार साज़िशें गुलज़ार के ख़िलाफ़।
मक़तल नहीं है ताज है क्यों हाथ काटिए,
ऐसा न ज़ुल्म कीजिए मेंमार के ख़िलाफ़।
इल्मी सफ़ों में लाएं किताबों के असलहे,
हमने जेहाद छेड़ा है तलवार के ख़िलाफ़।
---- शारिब मौरांवीं