धरती ने दी थी साँसें— साँसें भी, और साथ भी,
पर मानव ने हर साथ को, बस साँस की तरह खर्च किया।
नदियाँ बोलीं— “मैं तेरे मन की दर्पण-सी हूँ”,
पर वह उन्हें काँच समझ कर तोड़ता चला गया।
आकाश ने छाया दी माँ की तरह—
लाड़-सा, आशीष-सा, बादलों के आँचल-सा।
पर मानव ने वही आँचल चीर दिया—
जैसे भविष्य की किताब से कल ही निकाल फेंका हो।
वृक्ष बोलते रहे— “हम खड़े हैं, बस तेरे खड़े रहने के लिए”,
पर उसने उन्हें काटा ऐसे,
जैसे कोई दुःख काटना चाहता हो…
पर दुःख तो वही खड़ा रहा।
समय ने पूछा— “अब रोते क्यों हो?”
मानव बोला— “मैंने माँगी थी रौशनी…
पर लौटा अंधेरा क्यों?”
प्रकृति हँस दी— हँसी भी, और हसीं भी,
क्योंकि उसका सौंदर्य तो शाश्वत था,
पर मानव की हँसी अब लौट कर
बस एक प्रतिध्वनि बन गई थी।
वह खड़ा है— अपने ही बनाए रेगिस्तान में,
जहाँ पछतावे की रेत
हर क़दम को डूबो देती है।
अब वह फुसफुसाता है—
“धरा! मुझे फिर से धरा दे वह कोमलता,
क्योंकि मैं टूटकर तुम्हारी माटी में
मिट्टी-सा मिल जाना चाहता हूँ…”
प्रकृति कहती है— “उपहारों का उधार,
चुकाना ही पड़ता है मानव…
मैंने दिया था जीवन,
और तुमने लौटाया विनाश—
अब इस अंतर का ब्याज तुम्हें ही भरना होगा…”


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
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