यह मेरी, कैसी परीक्षा है?
काया के पात पर, रूह की उत्तीर्णता...
या प्रतिशोध?
उन नकचढ़ी चुड़ियों के घमण्ड चूर होने का
जिनकी खनक आज भी
तैर रही है,
शरद की रात्रि से घिरे
कान, और गर्दन के समीप
जहां तारें बुहारें थे,
तुम्हारी हया के केशों से
यकीन करो.. बुहारतें हुए मैंने, गिने नहीं थे तिल,
रातों की गणना, भला प्रेम हो सकती है?
बिजलियों की कड़कड़ाहट है
गिले पर्दें शिकायत करतीं है
दिल नहीं पड़ सकता और
बदन के नपे तुले वाक्यों को
जाने कैसा अरण्य है भीतर मन के
जहां की पहूँच मात्र दो कदम है,
मगर जटिल...
कहती हो तो मान लेता हूँ
मैं निर्मोही, विषाक्त, और पाषाण भी !
किंतु गलने को आतुर
महज़ एक मौन प्रलाप से
मुझे दिखता है सबकुछ
बेजान और उदासीन हैं आंखें
लगता है जैसे अकाल पड़ा है
टिमटिमाते दोनों, झेलम के शहर में
आज रो लो! गले से मुझे लगाते हुए
तुम जानती हो..
रुदन स्वरों के बगैर, मैं कविता नहीं गा सकता
मेरे कदम अब थम गये हैं
जहां तक स्पर्श का राज है
अधिकार के पलाश बिखरे हैं
तुम डरती हो?
मुझे खोने से?
मैं तुम्हारी आकाश के सांचे में ढला चांद हूँ
सत्य.. और अटल...
भय एक नाज़ुक व्यंग्य है
किंतु पलायन पर तुम्हारे प्रश्न चिह्न ,
सदियों से मेरी तृप्ति!
आने वाली सारी रातें तुम्हारे बिना अधूरी है
मैं फिर से देखना चाहता हूँ
भोर का तारा
तुम्हारी तर्जनी से
मैं छूना चाहता हूँ कसैले मन के उन दीवारों को
जहाँ पपड़ियाँ पड़ी है प्रतीक्षा की
और चढ़ा दिया गया है
केवल उदासी के फोटोग्राफ़ ,
तुम्हारे बिना मैंने खो दिया है
कितने जीवन, कितने अवध,
मिला नहीं अब तक कोई
जो पी सके, पीड़ा का उफ़नता सागर
देखो मुझे, उन तमाम प्रयासों से
अश्रु, कामना, ध्येय, श्रेय
जो ठहर गई थी उस आखिरी क्षणों में..
ज़रा देखो, कांपते इस देह की धरा को
पीली पड़ती जा रही है मेरी नाड़ी
बचा ही नहीं कोई वैध,
जो बतला सके इस रोग को
लक्षण सारे प्रेम के हैं
और तुम ही हो, एकमात्र उपचार...
/ विक्रम 'एक उद्विग्न'
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