उम्मीदों का सूरज जब ढलने लगा,
निराशा रूपी अँधेरा, निगलने लगा।
जितना कुछ भरा था अहं सा ठोस,
धीरे-धीरे, वो सब कुछ गलने लगा।
बर्फ सी जमी हुई थी अंदर हताशा,
तानों की आग से ये उबलने लगा।
करता रहा संघर्ष और परिश्रम सदा,
धीरे- धीरे मेरे हालात, बदलने लगा।
कंटक रास्तों पर चलने की चुनौती,
मैं साजो- सामान उठा चलने लगा।
🖊️सुभाष कुमार यादव