"उम्मीदों का चारकोल "
- उम्मीदों का चारकोल *
अव्वल आनें का कभी सोचा नहीं,
क्योंकि मैं भीड़ में शामिल था ही नहीं
मैंने अलग राह बनायी,
अलग होनें के कारण मैं रह गई थोड़ा पीछे ।
लेकिन अंतिम तो रहूंगी नहीं,
जो दुनिया का पथ था उन पर जिन लोगों नें भी क़दम रखा,
उन्होंने सहारें ढूँढें प्रथम आनें के वो पहुँच गए पहले पायदान पर।
मैं अपनी अलग पगडंडी रोज़ाना देखती हूँ।
मुझें अभी समय लगेगा इसे पक्की सड़क बनानें में,
मैं रोज़ाना इस पर उम्मीदों का चारकोल डालती हूँ
और बैठ जाती हूँ इसके सूखने के इंतज़ार में, अकेली हूँ अभी समय लगेगा मुझें रास्ता बनानें में ।
मेरी मंज़िल मुझे अवश्य ही मिलेगी ,
मुझें खुद पर भरोसा है
एक भरोसा ही मुझें औरों से अलग करता है,
मैं हारी नहीं हूँ और हार भी नही सकती
जीतना है अपनें लिए भी भीड़ से अलग होने के लिए भी।
रचनाकार- पल्लवी श्रीवास्तव
ममरखा, अरेराज, पूर्वी चम्पारण( बिहार )
रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (3)
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लिखन्तु - ऑफिसियल said
Bahut hi utsahvardhak rachna likhi ma'am aapne....👌👍🙏
सरिता पाठक said
अति सुन्दर रचना बहुत ही प्रेरणा दायक और उत्साहवर्धक रचना 👌आदरणीय मेम को स्नेह युक्त नमस्ते 🙏🙏
रीना कुमारी प्रजापत said
Bahut sundar likha ma'am aapko or aapki lekhani ko pranaam🙏🙏👍👌
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