बे - इंतहाँ कश्मकश कुछेक जद्दोजहद के बादl
मैं बेशक हार जाता हूँ एक हद के बादll
मेरी लम्बाई महज इंचटेप की जद तक न देख,
मैं थोड़ा और ऊँचा हूँ मेरे कद के बाद l
मैं विसरा हूँ भूलाए जाने के दरमयान,
लोग याद ही कहाँ रखते हैं एक मक़सद के बाद l
हद में रहना मुनासिब है जिंदगी की ड़गर में यारों,
अधिकार होता कहाँ है कभी सरहद के बाद l
नरमी जायज है बड़प्पन की मां जैसी,
आदमी... आदमी रहता कहाँ है मद के बाद l
नएपन का आदी भी नए से रुसवा हो जाता है,
फिर वो पाना छोड़ देता है जायद के बाद l
-सिद्धार्थ गोरखपुरी