तुम्हारी बेपरवाही ने मुझे शायर बना दिया,
वरना मैं भी किसी और की तरह साधारण थी।
अब हँसी आती है अपनी मोहब्बत पर,
जो तेरे इक जवाब के लिए वर्षों से व्याकुल थी।
मैंने तन्हाई से दोस्ती कर ली है अब,
क्योंकि तेरा साया भी अब सवालों से भरा हुआ था।
तू गया तो कुछ भी नहीं गया —
सिवाय उस उम्मीद के, जो सबसे आख़िरी सहारा थी।
तू वक़्त से भी ज़्यादा बदल गया —
पर मैं अब भी वहीं हूँ, जहाँ तेरा “रुक जा” अधूरा था।
मोहब्बत में क्या बचा है अब सोचने को —
मैं तो अब खुद को भी लिखती नहीं, सिर्फ़ मिटाती हूँ।
मैंने तुझसे कुछ नहीं माँगा —
न वादा, न वफ़ा।
बस…
इतना सा सच,
कि मैं तेरे लिए
थोड़ी सी भी ‘मैं’ रह सकूँ।
पर तुमने मुझे चुप रहने को कहा…
और फिर…
मेरी चुप्पी से ही डरने लगे।
तुम्हारी बेपरवाही ने
मुझे टूटा नहीं —
बस ख़ाली कर दिया।
अब जो कुछ बचा है,
वो सिर्फ़ शब्द हैं —
जिनसे मैं खुद को जोड़ती नहीं,
बस खुद को छू लेती हूँ…
शायद…
शायर इसी को कहते हैं?