कपकपाती ठंड में, झोपड़ी की दीवार,
बच्चे कांपते हैं, मानो पतंग की डोर।
नन्ही आँखें, डर से खौफ खाती हैं,
ठंडी हवाओं से, वे सिहर-सिहर जाती हैं।
फटे हुए कपड़े, और भूखा पेट,
कहां जाएँगे ये, किससे मांगें ये सौगात?
माँ की आँखों में, उम्मीद की किरण,
पर ठंडी हवाएं, बुझा देती हैं मन।
आग जलाने को, लकड़ी नहीं है पास,
कैसे सहें ये, ठंडी रात की आस?
कपकपाती होंठों से, निकलती है फरियाद, कौन सुनेगा इनकी, ये बेबस पुकार।
ओढ़े हुए हैं, फटे हुए कंबल,
ठंड से कांपते हैं, जैसे सूखे पत्तल।
किसने छीना इनसे, बचपन का हक,
किसने दिया इनको, ये कठिन संघर्ष।
हे ईश्वर, इन पर कृपा कर,
इनकी तकलीफों को, दूर कर।
दे इनको गरमाहट, दे इनको प्यार,
बना दे इनका जीवन, खुशियों से भरा।