हम आज में कल, और कल में आज तलाशते रहे..
बेज़ान ग़ज़लों की खातिर, अल्फ़ाज़ तलाशते रहे..।
महफ़िल में तो हर वक्त, हमारा ही जलवा रहता है..
बस उनके रूबरू, जाने क्यूं आगाज़ तलाशते रहे..।
अब दास्तां–ए–जुल्म कहना भी, इक गुनाह हुआ..
हक–ओ–हुकूक की सुनता वो राज़ तलाशते रहे..।
वहीं मुहब्बत, वही ज़फा और वही दर्द–ए–दास्तां..
जो थे दिल के चारागर, वो भी इलाज़ तलाशते रहे..।
मेरे दर्द से तेरा दिल, बेसाख़्ता ही जो रो पड़े कभी..
हम बदले हुए ज़माने में क्यूँ, वो रिवाज़ तलाशते रहे..।
पवन कुमार "क्षितिज"