चल पड़ा हूँ राह में, मंज़िलों की आस है,
हर कदम पे ठोकरें हैं, पर यक़ीन भी खास है।
धूप में जलते रहे, छाँव भी मिली कहाँ,
पर जो रुके वो हार माने, ये मेरी तो बात न थी वहाँ।
संघर्ष की इन गलियों में, हर मोड़ कुछ सिखा गया,
जो गिरा, वही तो जीता — जो झुका, वही तो उठा गया।
सपनों के उस ऊँचे शिखर पर, इक दिन नाम मेरा होगा,
मेहनत की इस आग में, सफलता का रंग सुनहरा होगा।
रात काली सही, पर सुबह भी होगी,
डगमगाए हैं कदम, पर रुकेंगे नहीं।
क्योंकि जीत उसी की होती है,
जो हार के बाद भी झुकता नहीं।
विरेन्द्र जैन माहिर
नागपुर महाराष्ट्र