मिला ना मीत तो मनमीत किसे बनाऊं
मिलें ना जब सुर तो गीत कैसे गाऊँ
न वो श्रोता रहें ना वो सुर साधक
तो बताए कोई भला मुझे
कि महफ़िल कैसे सजाऊं
मिला ना मीत......
हर तरफ़ नफरतों के शोले हैं
धोखे फ़रेब आग के गोलें हैं
जल रहें हैं तन बदन मन
इस चिलचिलाती धूप में
सावन कहां से लाऊं
मिला ना मीत तो........
सामाजिक पारिवारिक
खोखलापन है
अपनों की भीड़ में भी सूनापन है
चेहरों पर चेहरें
लगते अब डरावने
न वो मासूमियत
न वो भोलापन है
सिर्फ़ शुष्क जीवन है
ना शबनम कहीं पर
सिर्फ़ है तो कुछ..
शोले हीं शोले ज़मीं पर हैं
शोले हीं शोले ज़मीं पर हैं.....