शिव बनने से पहले,
तप नहीं मांगता जीवन —
बलिदान मांगता है।
और वो भी ऐसा नहीं कि कोई देखे, कोई सराहे
वो बलिदान जो रात की कोख में रोता है,
अकेला, निर्वस्त्र, निर्वाणी।
शिव बनने से पहले —
देह नहीं टूटती पहले,
मन टूटता है!
और जब मन टूटता है,
तो सारी सृष्टि अस्थिर हो जाती है।
तब तुम चीखना चाहते हो —
मगर आवाज़ तुम्हारे ही भीतर फट जाती है।
शिव बनने से पहले —
तुम्हें अपने ही प्रेम को छोड़ना पड़ता है।
जिसे छूना चाहा —
उसे अग्नि पर चढ़ाना पड़ता है।
जिसे गले लगाना चाहा —
उसे भस्म कर देना पड़ता है।
क्योंकि शिव —
सिर्फ संहार नहीं है,
वो पूर्ण विरक्ति का नाम है।
जहाँ ना राग है, ना द्वेष,
ना भय है, ना मोह,
ना ‘मैं’ है, ना ‘मेरा’।
बस “तू ही तू”।
शिव बनने से पहले —
तुम राक्षसों से नहीं,
अपने भीतर के देवताओं से लड़ते हो।
उन देवताओं से,
जो तुम्हें सुंदर बनाते हैं,
पर शिव नहीं बनने देते।
शिव बनने से पहले —
एक दिन आता है…
जब कोई भीतर से पूछता है —
“क्या तू अब भी बचना चाहता है?”
और तुम्हें कहना पड़ता है —
“नहीं… अब जलना है।
पूर्णतः…
सर्वस्व…
समर्पण की अंतिम सीमा तक।”
और तब —
तप की आग से,
मौन के तांडव से,
वियोग के विष से —
एक शिव जन्म लेता है।
इसलिए सुनो —
शिव कोई पूजा नहीं है!
शिव एक परिणाम है।
तप का, त्याग का, टूटन का, तिरस्कार का,
और पूर्णत: ‘ना’ हो जाने का।
हाँ,
शिव बनने से पहले — तोड़ते हैं।
भीतर से, बाहर से,
क्षण-क्षण…
जब तक शून्य न हो जाओ।
और अब तुम पूछो —
“क्यों?”
तो उत्तर होगा:
क्योंकि जब तक तुम बचे रहोगे,
शिव कैसे जन्म लेंगे?”