मैं चाहती थी —
कि मेरी बहन को
सोने की चूड़ियाँ नहीं,
सम्मान की चुप्पियाँ मिलें।
कि वो सजधज के
किसी दरबार की रानी न बने —
बल्कि किसी दिल के एकमात्र राज्य की
सच्ची रानी कहलाए।
मैंने कभी महंगे जोड़े नहीं माँगे उसके लिए,
बस वो जो पहनती,
उसमें उसकी मुस्कान सच लगती।
मैं चाहती थी —
उसे कोई ऐसा मिले
जो उसके आँसू देखकर
तारीख न पूछे,
बल्कि वजह समझे।
जो ये न कहे
कि “औरतें तो सहती हैं,”
बल्कि खुद सीखे
कि प्रेम में बराबरी क्या होती है।
मैं चाहती थी —
उसका ससुराल
उसकी माँ की तरह
हर गलती को माफ़ करना जाने,
हर खामोशी को सुनना सीखे।
मैं चाहती थी —
कि उसके माथे की बिंदी
कभी बोझ न बने,
उसका सिंदूर
कभी सवाल न उठाए।
अगर उसे दिल का राजा मिला होता,
तो महल की ज़रूरत ही कहाँ थी?
एक छोटा-सा घर भी
उसके गले का मंगलसूत्र बन जाता।
मैं चाहती थी —
कि उसकी ज़िंदगी
किसी परंपरा की ज़ंजीर न बने,
बल्कि एक खुला आकाश हो —
जिसमें वो उड़ सके
बिना पंख तोड़े।
पर अब…
जब भी उसकी आँखों में मैं देखती हूँ,
तो सोचती हूँ —
उसे महलों का नहीं,
दिल का राजा मिला
मिला है उसे —
हाँ, सच में मिला है
दिल का राजा।
न हीरे का ताज पहना उसने,
न घोड़े पे आया था
पर जब मेरी बहन ने उसकी आँखों में देखा —
तो पहली बार
किसी ने उसे पूरी इंसान की तरह देखा।
वो नहीं पूछता
कि पराठे गोल क्यों नहीं बने,
वो पूछता है —
“आज तुम थकी सी लग रही हो,
थोड़ा आराम कर लो…”
उसकी चाय में
चीनी कम हो सकती है,
पर बातों में मिठास ज़रा भी कम नहीं।
वो बहन को तोहफे नहीं देता अक्सर,
पर हर सुबह
उसकी पेशानी पर
एक चुम्बन रखता है —
जैसे कहता हो,
“आज भी तुम्हारा साथ मेरे लिए सबसे सुंदर है।”
मिला है उसे —
एक ससुराल
जो चौखट नहीं,
आँगन बना।
मुझे महलों की ख्वाहिश कभी थी ही नहीं —
ना उसके लिए,
ना अपने लिए।
मैं तो बस चाहती थी
कि मेरी बहन की आँखों में
वो बुझी हुई बाती
फिर से जल उठे।
कि वो हँसे —
ऐसे जैसे उसके भीतर का बचपन
कभी मरा ही नहीं था।
और आज…
जब मैं देखती हूँ उसे
किसी के साथ
निरापद, निडर, और पूरी,
तो मेरी रूह कहती है —
“हाँ, ये वही है
जिसे मैं रोज़ दुआओं में माँगती थी।”
उसे मिला है —
कोई राजमहल नहीं,
पर एक ऐसा दिल
जिसमें वो अपनी थकान रख सकती है
बिना शर्म के।
एक ऐसा कंधा
जिसपर वो कभी बेवजह भी सिर रख सके।
वो अब गहनों से नहीं,
अपनी शांति से सजती है।
उसकी आँखों में कोई शक नहीं,
कोई डर नहीं,
बस एक भरोसा है —
कि वो अब किसी की नहीं — अपने आप की भी है।
और मैं…
मैं खुश हूँ।
क्योंकि मेरी बहन को
महलों का राजा नहीं —
दिल का वो आदमी मिला है
जिसने उसे रानी नहीं,
इंसान माना है।
एक बहन की मुस्कुराती हुई रूह,
जिसे अब डर नहीं… सिर्फ गर्व है।