धक-धक से जिस्म जिंदा जो जानता।
वही दिल पर दस्तक देना भी जानता।।
शाम ढले टक-टक इत्तिला देती मुझे।
बिना वही आवाज़ सुने मन न मानता।।
दिन में बक-बक करते ही नही थकती।
काम ही कुछ ऐसा स्वभाव न जानता।।
आँखें साथ दी दरवाजे की झिर्रिओ से।
ठक-ठक जानते कान दिल न मानता।।
इस तरह से बेचैन पहले कभी नही रही।
बड़ा लापरवाह 'उपदेश' वक्त न जानता।।
- उपदेश कुमार शाक्यवार 'उपदेश'
गाजियाबाद