प्राणों के अग्निदाह जलन में,
आत्मरक्षा की पुकार आना बाकी है,
अंधेरे की अथाह गहराई में,
उजाले को अभी छूना बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
अज्ञेय जिनके चेहरे हैं,
पहचान हो रहीं हैं उनकी,
जो अज्ञात हैं,
समर्पण करना बाकी है,
हो रही है गलती पर अनुभूति अभी बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
आसार जीवन लग रहा है,
सार आना बाकी है,
अटूट दर्प के पत्थर को तोड़,
खुशबू के मधु आना बाकी है,
विष फैल रहा है जीवन में,
नीलकंठ नहीं है हम,
विश्वास आना बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
पत्थर को भगवान समझ पूज रहे हम,
आस्था वही पुरानी है,
रूढ़ी इतना बन गए,
सोच बदलना बाकी है,
कब तक इन्हीं विश्वासों की बेड़ी में जकड़े रहे हम,
जीवन में सच्ची आस्था आना बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
दर-दर की ठोकरे खा रहा,
फिर भी संभला नहीं जाए,
धिक्कार हे! ऐसे जीवन पर ,
स्वाभिमान आना बाकी है,
कैसे जी लेते हैं ऐसे प्राणी?
स्वभाव भी कृत्रिम बना लिए,
प्राण में भी छलाछल कर रहे,
तलातल के दलदल में,
झूठ के कुंड, कुंड में डुबकी लगा रहे;
पाप के ताल तलैया में,
ऐसे पापी झूम रहे,
कोई पवित्र आत्मा आओ,
सच्चे सच्चे गीत लाओ,
पवित्रता की अलख जगाओ,
समझा-बुझाकर कर्म करना सिखाओ ,
झूठ के दीप बुझ गए,
सच्चाई की निकटता अभी बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
धर्म अधर्म की चिंता मत करना,
पाखंड के फेर में मत पड़ना,
संसार के मेलों में ऐसे पाखंडी बहुत मिलेंगे,
झगड़े करेंगे, धर्मा चरण के उपदेश देंगे,
समय के भूखे हैं ये,
भूत के लोभी, भविष्य के कर्ता, वर्तमान के बंधक;
इतना जहर भी फैलाकर अंतिम सांसे भी जकड़ेंगे,
मूल प्रवृत्ति खो गए तो लालची बनकर रह जाओगे,
शर्मसार रहकर फिर सम्मान कहां से लाओगे,
निंदा प्रशंसा से दूर हट कर,
चिंतन करना अभी बाकी है,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
टूटते तारे को देखकर यह मत समझना,
की अधूरी इच्छाएं पूरी होगी,
हे फल के पुजारी, परिणाम के भिखारी;
लक्ष्य है बहुत, कर्म करना अभी बाकी है ,
सावन आ गया, बहार आना बाकी है।।
- ललित दाधीच।।