ये माना आंख मेरी नम नहीं है।
मगर तुझसे मोहब्बत कम नहीं है।।
अकीदत से ये दिल कहता है सबसे।
वतन मेरा एरम से कम नहीं है।।
कभी भूले से छुप कर आह भरना।
मेरे जख्मों का ये मरहम नहीं है।।
अज़ल से आज तक दुनियां है शाहिद।
हमारा सर कभी भी ख़म नहीं है।।
तुम्हारी मुंतजिर हैं वो निगाहें।
चलो "संतोष" ये भी कम नहीं है।।
-कवि - श्री संतोष मिश्रा जी