जब ये मरज़ मेरी ज़िंदगी में आया
तो दिन - रात उदासी छाई रहती थी,
अकेली बंद कमरे में रात भर रोया करती थी।
और रोती भी क्यों ना?
सत्रह बरस की उम्र में ही अचानक से
एक ऐसा रोग लग गया था
जिसे मैं किसी को बता भी नहीं सकती थी।
कुछ वक्त बाद इस हाल में पहुंची
कि बताऊं किसी को अपनी परेशानी
तो दो लफ़्ज़ सहानुभूति में सुन
कुछ सुकून मिलेगा,
पर बताया जिसे भी अपना मरज़
उसे ये मरज़ बड़ा मामूली लगा है।
पर तकलीफ़ मेरी है ना,
सहना तो मुझे पड़ा है।
आजकल सत्रह बरस की लड़कियां बड़ी
तेज़ तर्रार होती है,
पर मैं तो बिल्कुल बच्ची ही थी।
अब बड़ी हो गई हूं तो अब थोड़ी
समझदारी आई है,
इसलिए अब बस सहती रहती हूं
किसी से कहती नहीं हूं।
अब उदास भी नहीं होती हूं
और रोती भी नहीं हूं,
क्योंकि अब मैं समझ गई कि
ये मेरे जीवन का एक हिस्सा है।
पर तब बहुत चाहते हुए भी नहीं
रोक पाती हूं मैं इन आंसुओं को,
जब ये मरज़ मेरी तरक्की में बाधा बनता है।
🖊️ रीना कुमारी प्रजापत 🖊️