पहली बार मिली थी तुम भाई की सगाई में,
पीले सूट में जँच रही थी जैसे डूबी हो रसमलाई में,
तुम्हें देखते ही मेरा मन कह रहा था कि तुमसे दिल की बात कर लूँ,
मम्मी से मिलवाकर तुमको पक्की अपनी बात कर लूँ,
मगर मेरे शर्मीले स्वभाव ने मेरा बंटाधार कर दिया,
मेरे सामने मेरे मित्र ने तुमको इज़हार कर दिया,
अगर उस दिन मुझे शर्म आई ना होती,
तो आज तु मेरे दोस्त की लुगाई ना होती,
मैं ही ले रहा होता तेरे साथ फेरें,
यूँ तेरी शादी में बैठ कर रसमलाई पे रसमलाई मैंने खाई ना होती।
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'