रोक सको तो रोक लो अब —
ये कोई आम स्त्री नहीं रही।
ये वो है, जो जला चुकी है
अपने भीतर के सारे सवाल,
और अब उत्तर बन चुकी है —
अग्नि की लिपि में, मौन की भाषा में।
मैं अब दर्द नहीं,
दिशा हूँ।
मैं अब आँसू नहीं,
अमृत और विष का संतुलन हूँ।
मैं अब क्षमा नहीं माँगती,
मैं कालरात्रि बन चुकी हूँ,
जिसके पाँवों में खुद समय भी काँपता है।
रोक सको तो रोक लो —
मेरे भीतर उठती इस लहर को,
जिसमें न शंका है, न पछतावा —
बस एक निर्वसन सत्य है,
जो चुपचाप सब कुछ जलाकर
शिव के चरणों तक पहुँचता है।
जो मुझे तोड़ना चाहेंगे,
उन्हें पहले अपने ईश्वर से भिड़ना होगा,
क्योंकि अब मैं प्रार्थना नहीं,
प्रलय हूँ।
अब मैं अधूरी नहीं,
विलीन हूँ —
उस स्रोत में,
जहाँ से चेतना जन्म लेती है।
रोक सको तो रोक लो —
मेरे बढ़ते हुए क़दमों को,
जिन्हें अब किसी भय, किसी बंदिश,
किसी सामाजिक औचित्य की ज़रूरत नहीं।
मैं अब मर्यादा की सीमाओं से नहीं,
अस्तित्व की ऊँचाइयों से चलती हूँ।
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मैं वही हूँ —
जो उठी थी धूल से,
और अब धूप बनकर जल रही है।
जिसे तुमने गिरा समझा,
वो तो अपने शिव में समाधि बन चुकी है।
रोक सको तो रोक लो अब!
पर याद रखना —
अब ये कोई स्त्री नहीं,
“भीतर की काली” बोल रही है।