रिश्ते
कोई युद्धभूमि नहीं होते,
जहाँ एक को जीतना हो
और दूसरे को हराना।
यह
दो हारे हुए लोगों की
एक गुप्त आशा होती है —
कि शायद कोई
कंधा बन जाए।
जब भी
कोई कहता है,
“मैं सही हूँ…”
तो एक प्रेम मरता है।
और जब
कोई कहता है,
“आओ, साथ बैठें…”
तो एक रिश्ता बचता है।
सुनना — सबसे बड़ा उपहार है।
और समझना — सबसे बड़ा समर्पण।
तुम्हारे जीतने से
अगर हम दोनों थक जाएँ,
तो हार जाना
रिश्ते के लिए अच्छा होता है।
क्योंकि कोई रिश्ता
‘सही’ होने से नहीं चलता,
बल्कि ‘समझ’ होने से बचता है।
“मैं जीत जाऊँ”
ये तो अहंकार की ख़ुशी है —
पर
“हम बच जाएँ”
ये आत्मा की शांति है।
अगर प्रेम करना है,
तो जीतने से पहले
मौन हो जाना सीखो।
अगर रिश्ता निभाना है,
तो शब्दों से ज़्यादा
नज़र से माफ़ करना सीखो।
रिश्तों का अंतिम मंत्र क्या है?
ना शर्तें,
ना तर्क,
ना जीत…
बस इतना — कि तू भी थका है,
और मैं भी…
तो चल, थोड़ा साथ चलें।