आख़िर सूकूँ का, इस शहर में पता क्या है..
सब इल्ज़ाम मुझ पर ही, मेरी खता क्या है..।
जुलूस में चेहरे सब, मुखौटे से नज़र आते हैं..
जानते ही नहीं,एक–दूसरे से वाबस्ता क्या है..।
इस शोर में तेरी ये ख़ामोशी, बेसबब तो नहीं..
दिल में जो छुपा है, वो राज़ बता क्या है..।
ये आफ़ताब ज़मीं से, हर रोज़ रूबरू होता है..
कोई तो बताए कि वो आख़िर कहता क्या है..।
कहने को तो आंसू, बस एक बूंद है पानी की..
मगर ये खारापन सा, साथ में बहता क्या है..।