मैंने प्रेम में सांझ हो जाना चाहा,
जैसे राधे सी हो जाना चाहा,
प्रात: की रोशनी में जग की सोचूँ,
फिर कैसे प्रेम की पराकाष्ठा को देखूँ,
सांझ की मद्धिम बेला में दीप सी,
केवल तुमको देखूँ शलभ मीत सी,
मैंने प्रेम में कालिंदी तीर हो जाना चाहा,
जैसे राधे सी हो जाना चाहा,
जगत के शोर से दूर सुनूं मैं,
तेरे हृदय के गीत गुनगुनाऊँ मैं,
ज्यों कदंब तले सुने बांसुरी,
कोई विरहिणी गोपिका सी,
मैंने प्रेम में दो नयन हो जाना चाहा,
जैसे राधे सी हो जाना चाहा,
देह रही पर्वत सरीखे स्थिर खडी़,
अश्रु धारा बह चली सरिता सी,
पग पखार लौट आये फिर मेघ बन,
और बरसे दो नयनों में नेह बन,
मैंने प्रेम में कृष्ण हो जाना चाहा,
पीड़ राधे सी हो जाना चाहा,
रश्मि मृदुलिका'