मैंने
तेरे नक्श ढूंढे
हर उस रास्ते पर
जो मेरे पैरों ने कभी छुआ ही नहीं था।
तेरे नाम को
हर अनपढ़ दीवार पर उकेरा,
हर अजनबी आँख में
अपनी ही तलाश पढ़ी —
और हर बार
तेरे सिवा कुछ नहीं दिखा।
मैं
तेरी हँसी के पीछे भागा,
तेरे होने की कोई छाया,
कोई रूहानी धड़कन
किसी रूह में बस गई हो —
इस भ्रम में
हर रिश्ते की परछाईं से पूछता रहा —
“क्या तुम वही हो?”
रातें
आईने सी थीं —
मैं झाँकता रहा,
पर हर बार
वो चेहरा जो दिखता,
मेरे ही भीतर से उठता था —
चुपचाप,
धुँध में लिपटा,
जैसे कोई पुराना ख़ुदा।
कभी
किसी बूढ़ी किताब के आख़िरी पन्ने से
तेरी सूरत की ख़ामोश लकीरें झरतीं —
कभी मेरी कविता
तेरे नाम को बिना पुकारे
बस तेरी साँस सी बहती रही।
मैंने
तुझसे मिलने के लिए
ख़ुद को खो दिया था —
और जब सब थक गया,
वक़्त भी, तलाश भी,
तब…
एक रात की ख़ामोशी में
एक परछाईं आई —
ठहरी हुई,
बोलती नहीं,
बस देखती रही।
मैंने पूछा,
“तू कौन है?”
उसने कहा —
“मैं… वही,
जिसे तू उम्र भर ढूंढता रहा —
और जो हर बार तेरे भीतर बैठा रहा।”
मैं
न बोल सका,
न रो सका —
बस
अपनी ही साँस को
पहली बार
आँखों से छूकर देखा।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड