नदी कहे, "मैं माँ समान,
सबको देती जीवन-प्राण।"
पर्वत बोले, "पिता हूँ मैं,
संघर्षों में अडिग सदा।"
वृक्ष कहे, "हूँ करुण हृदय,
छाया और फल देता सदैव।"
पवन कहे, "मैं चंचल बालक,
कभी मंद तो, कभी तूफान।"
सूरज तपे, श्रमिक सा रोज,
प्रकाश से भर दे हर खोज।
चाँद कहे, "शीतलता मेरी,
स्नेह लुटाऊँ निशा घनेरी।"
सागर बोले, "गंभीर हूँ मैं,
अथाह जल का शरीर हूँ मैं।"
फूल कहे, "मैं प्रेम निशानी,
सुगंध बाँटूँ हर इक क्यारी।"
धरती कहे, "हूँ माँ के जैसी,
सहूँ कष्ट, पर रहूँ हमेशा हँसी।"
मानव सुन, अब तो समझ,
प्रकृति भी है संवेदनामय।