मेरे मन की निस्तब्ध गुफाओं में
एक अस्पष्ट सी गूँज उठती है,
ना वह शब्द है,
ना कोई पुराना स्वर—
फिर भी…
वह मेरी आत्मा को सहलाती रहती है।
न जाने किस जीवन की छाया है यह,
जो हर रात्रि
मेरे हृदय के दीपक को
बिन हवा बुझा देती है।
मैंने कभी उसे नाम नहीं दिया,
पर वह मेरी पहचान बन गया—
एक अनकही व्यथा,
जो फूलों की तरह मुस्कुराती है
और काँटों की तरह चुप रहती है।
वह मौन,
जो बोल नहीं सकता
पर सुन लिया जाता है
हर बार, जब मैं अकेली होती हूँ।
कभी वह बिछुड़े किसी प्रिय की आह है,
कभी आत्मा का कोई अपूर्ण गीत—
जिसे मैं हर जन्म
आधा गाकर छोड़ आई हूँ।
यह मौन ही मेरा संगी है,
जो प्रतिध्वनि नहीं,
प्रतीक्षा है—
शायद एक ऐसी पुकार की
जो कभी की जा चुकी है
पर उत्तर अभी बाकी है।