करुणा के प्रत्येक कण
हृदय में पलते पीर के पल।
थाह लेना निद्रित निरीह
मन मुस्कान के विद्रुम वीर।
अंतहीन अनंत अम्लान
थक थक चलते प्रस्तर प्राण।
पहुंचाएगा पार अब कौन हमें
क्यों कंपित नहीं करता मेरा मौन तुझे?
स्वयं के नीर से भींगी निशि
मिलन के किसको तरसी तमी ?
प्रतिमा पीर की बनाऊं कैसे नाथ
छिदे हुए है पूरे हृदय के हाथ।
अकारण हँसा था स्वप्न सलोना
रोया नहीं टूटा सबसे प्रिय खिलौना।
चुपचाप बनाता रहा पाषाण शय्या
मिथ मधुरस की वही मोहक नैया।
_ वंदना अग्रवाल 'निराली'