रूह और जिस्म
साथ साथ
रहते हैं पर
इनका नाता तो
बेवफाई का है।
जिस्म तो कभी
रूह की सुनता ही नहीं
रूह भी
जिस्म को नहीं गिनती है
रूह जब जिस्म की सुनती है
शैतान हो जाता है आदमी
जिस्म जब रूह की सुनता है
आदमी देवता बन जाता है
जिस्म बिन रूह का वजूद तो है
रूह बिन जिस्म
किसी काम का नहीं है।
रूह कल थी
रूह आज है
हमेशा रहेगी
यह अजर है
यह अमर है
जिस्म की पाबंद
नहीं है।
जिस्म तो मिट्टी का घड़ा है
हर मौसम की मार
खाते खाते
चुक जाता है
थक जाता है
मिट जाता है
रूह तब एक नये
जिस्म की तलाश में
अंत से अनन्त की और
आज से कल और
पृथ्वी से स्वर्ग की ओर
निकल जाती है
फिर एक नये जिस्म में
शायद वापस लौट आतीं है
हम उसे जानते तो हैं
पर पहचानते नहीं हैं
बस यही सोचते हैं कि
हमारी रूह
नर्क या स्वर्ग में
जिस्म के कर्मो
का फल भोग रही है.