मेघ गर्जना।।
परमधाम द्वार आंगन हाटक के,
बजे नूपुर मघवा के वास्ते,
तारा पथ छिन्न-भिन्न हुआ न सुन पाया गर्जना,
नावाकिफ़ सा प्रतीत हुआ पुलोजमा का हंसना,
आधिपत्य ज्वाला में, लोचन डूबे हाला में
शक्र के पग मानो दर्प में थिरक रहे,
सुरारी के हाथों का गुरुर छिन खुद गुरुर में जी रहे,
असामान्य अंधेरे विपिन में शची विडंबनाओं की छाया में ,
एक तरफ गुमान, रात की आंधी में किलकारी करते आ रहा,
दूसरी तरफ पुलोजमा रात को लपेटे आंधी में जी रही
उषा के शीतल वन में अश्रु के बीज उगाकर दर्द के पेड़ सींचकर अब निराशा के फल खा रही,
सूर्योदय की आशा में अस्त होने की निराशा छा रही,
प्रेम रूपी दो छींटे, दे दो मुझे गर्जना;
अब राख लपेटकर मैं तुम्हारी बिन चिंता के है मरना,
असहाय निंदिया मेरी असहाय ये पागलपन,
एक झलक पाकर तुम्हारी काट लूंगी अकेले ये दीवानापन
एक बूंद का जीवन पाकर अब भाप बनकर उड़ रही,
ढूंढो मेरे सीप को अब अखियां मोती की रूह को तरस रही,
सारा जीवन एक दृष्टि में , मैं पहले नाप रही,
जब गौर किया हर बिंदु पे अब बार-बार यह रूह कांप रही,
बार-बार यही देख रही हूं यह सपना, यह जीवन है एक कल्पना,
हर बार रागा की धुन में सुनना चाहती हूं मेघ गर्जना।।
- ललित दाधीच।।