मन की टीस जगाए फिर, बीते पल की याद,
ज्यों सूखे पत्तों में छिपकर, गाए कोई फ़रियाद।
चलते-चलते राह में, रुकी हुई हर बात,
धीमे-धीमे चीरती, सीने की हर घात।
अधरों पर मुस्कान थी, आँखों में इतिहास,
गहरे जख्मों की तरह, चुभती रहती प्यास।
खोए सपनों की सुई, चुभती हर उपमान,
टीस उसी की जी रहा, मन का यह अवसान।
तूफ़ानों में मन खड़ा, फिर भी टूटे साँस,
टीस बनाती वक्त को, जैसे कोई ग्रंथ-प्रकाश।
तूने जो कुछ कह न सका, वो बोझ बना अनकथ,
मन में हर दिन पलता है, पीड़ा का वह पथ।
निश्चल भावों की टहनी, टूट गई कुछ यूँ,
हर मौसम में टीस ने , तेरा नाम लिया ही क्यूं।
रोका था दिल ने बहुत, रुके न पर एहसास,
बिन मौसम बरसात बरसी तेरी यादों की प्यास।
खिड़की पर बैठी हुई, भरी दुपहरी धूप,
संग उसी के जाग उठे, मन के जख्म अनूप।
जितना रोका खुद को मैं, उतनी बढ़ी विकलता,
टीस ने मेरी रग-रग में, भर दी एक निरंतरता।
झूठी हँसी के खोल में, सच का रहा निवास,
मन की गहरी झील में, टीस बनी सुवास।
आँखों की कोरों में छिप, रुक जाती जो नीर,
टीस वही बन ढलती है, कविता की लकीर।
पल-पल पर मन का हर कोना, कोना हुआ उजाड़,
टीस ने लिख दी स्वयं ही, अपने भीतर दहाड़।
फिर भी मन की बातों में, आशा की एक लौ,
टीस के संग भी जलता, जीवन का संजो।
यदि न होती टीस यह, मन न होता तीक्ष्ण,
दर्द ही करता है घटित, हर कविता का दीक्ष्ण।
यादों के इस कोर में, बस एक सत्य निवास,
टीस है लेकिन भीतर ही, करती नव-उपास।
हँसते-हँसते मन कहे, अपनी मौन कहानी,
टीस बनाए रखती है, जीवन में रवानी।
चलते-चलते मैने आज , इतना जान लिया,
टीस से ही बनता है, मन का असली दिया।
अधूरेपन की इस डोर में, भावों की परवाज़,
टीस बने तो मिलती है, संवेदन की लाज़।
अंततः मन की टीस ही, बन जाती है मन्त्र,
दर्द से उपजे शब्द ही, करते हृदय को तन्त्र।
ताने-बाने जीवन के, टूटे चाहे श्वास,
टीस ही बन सरगम , भर देती उल्लास।
मन की यह झंकार ही, बने अमर-उपदेश,
टीस से ही तो जन्मे मन के, अनगिन छंद-अरवेश।


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
The Flower of Word by Vedvyas Mishra







