मैं नहीं हूँ…
फिर भी सब कुछ मुझसे है।
मैं मौन हूँ,
पर शब्द मुझमें जन्म लेते हैं।
मैं शून्य हूँ,
फिर भी सम्पूर्ण ब्रह्मांड मुझमें समाया है।
जब मैं कुछ बनता हूँ —
दुख आता है।
जब मैं कुछ छोड़ता हूँ —
शांति आती है।
और जब मैं सब मिटा देता हूँ —
प्रेम प्रकट होता है।
मैंने चाहा — खो गया।
मैंने रोका — बह गया।
मैंने छोड़ा — मिल गया।
सत्य को पकड़ना नहीं पड़ता,
उसे बस…
अपने भीतर बैठ कर देखना होता है।
प्रार्थना वह नहीं जो शब्दों से होती है,
प्रार्थना वह है
जहाँ शब्द रुक जाते हैं,
और आत्मा झुक जाती है।
इसलिए…
ना कुछ माँगता हूँ,
ना कुछ बनना चाहता हूँ।
बस वही होना चाहता हूँ —
जो मैं मूल रूप से हूँ:
“शुद्ध चेतना”।
“जो स्वयं से जुड़ गया,
उसे फिर ईश्वर तक पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती…
क्योंकि वह जान गया —
ईश्वर, वही है।”