तुम ही थी...
और बस तुम ही रही
रात्रि की चुप्पी में
अश्रु बनकर बहा मैं,
तेरी स्मृति की चिंगारी में
हर रात जला मैं।
तुम नींदों में आई,
पर जीवन से दूर रही,
मैं हर साँस में
तुम्हें पुकारता रहा अधूरा सही।
तुम्हारे मुख की मधुर छवि थी,
बस एक भ्रम मेरी आँखों में,
मिलन की कल्पना भी,
अब जलती है राखों में।
मैं दीपक बन तुम पर
टिमटिमाया करता था,
तुम्हारी एक दृष्टि पर
जीता और मरता था।
तुम थी सुरभि-सी,
मैं सूखा पुष्प बना,
तुम्हारे प्रेम में मैं एकाकी,
और तू सजीव चित्र बना।
हर एक शब्द तुम्हारा
मेरे हृदय पर अंकित हुआ,
पर तुमको मेरा मौन भी
व्यर्थ प्रतीत हुआ।
रात्रि की रजनीगंधा-सी
महकती यादों में,
मैं छुप-छुपकर रोता रहा
वीरान जहानों में।
तेरे बिना ये जीवन,
यंत्रवत् हो चला है,
वेदना में डूबा,
किन्तु मौन बोल चला है।
भोर की पहली किरण भी
मुझसे पूछती है,
“जिसे तू चाहे",
"क्या वो तुझसे कभी कुछ पूछती है?”
मैं उस अक्षर-सा,
जो शब्दों से निकाला गया,
मैं उस आँसू-सा,
जो भीड़ में छिपाया गया।
तुम थी... और बस तुम ही रही मेरे लिए,
पर मैं? मैं तो सिर्फ एक ‘कोई’ था तेरे लिए...
अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
सर्वाधिकार अधीन है

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




