माँ है
आधी रात के सन्नाटे में,
सुनाई देती थी उसकी धीमी आहट,
नींद से दूर, सबके लिए जागती,
सपनों के बिस्तर बुनती थी, चुपचाप।
आग से उसका रिश्ता अटूट था,
चूल्हे की लौ में झलकता,
धुएं में खोई उसकी छवि,
खटती रहती, बिना थके, बिना रुके।
दिनभर सिर झुकाए काम में लगी,
न कोई शिकायत, न कोई अभिलाषा,
बस देती रही सबको अपना सबकुछ,
जैसे हो कोई दिया, जलता चुपचाप।
अब वह नहीं है यहाँ,
पर उसकी मौजूदगी हर कोने में है,
आँचल की छांव, मुस्कान की रौशनी,
अब भी महसूस होती है, उसकी हर निशानी।
उसका जाना सिर्फ शरीर का था,
रूह अब भी हमसे लिपटी है,
माँ थी, माँ है, और हमेशा रहेगी,
रसोई से दिल तक, हर जगह उसकी ही गूँज।