दिल के ज़ख्म हमको दिखानें नहीं आते
और वो कभी मरहम लगाने नहीं आते
फंस जाते हैं हर बार चंगुल में वक़्त के
शायद हमें बचनें के बहाने नहीं आते
वो रूठ जायें तो मना लेता हूँ मैं अक़्सर
मैं रूठता हूँ तो वो मनानें नहीं आते।
इंतिहां हो चली है दर्द-ए-जिगर की
आंसू भी अब तो हमको रूलानें नहीं आते।
कोई चाहनें वाला ही बनेगा तिरा हमदर्द
फ़रिश्ते किसी का ग़म उठानें नहीं आते।
इस कदर चले गये वो हमसे रूठकर
कि ख़्वाब में भी शक़्ल दिखानें नहीं आते।
कुछ ग़ैर हैं जो पूछते हैं आज भी मुझे
अपनें मगर अब मिलनें-मिलानें नहीं आते।
'माँ' तिरे आँचल से जब से दूर हुआ हूँ
परिज़ाद मुझको लोरी सुलानें नहीं आते।
बचपन को जब से गाँव में आया हूँ छोड़कर
ख़्वाब भी तब से तो सुहानें नहीं आते।
इस पल को सिद्दत के साथ जी सके तो जी
लौटकर गुज़रे हुए जमानें नहीं आते।
अपने ही मिलाते हैं हमें ख़ाक में आख़िर
ग़ैर क़भी दाग लगानें नहीं आते।
आख़िरी सफ़र में लाज़िमी हैं चार लोग
इससे ज्यादा अर्थी को उठानें नहीं आते।