किसान
बेचारे किसान का किसी से बैर नहीं,
फिर भी कहीं उसकी खैर नहीं।
मौसम की मार सहता है वह यहाँ,
कदम रखने कहीं उसका ठौर नहीं।
खून-पसीना बहाता है जो खेत में,
थाली में उसके, आज क्यों कौर नहीं।
कर्ज का बोझ सिर पर हर रोज़ नया,
फिर भी अदालत में कभी पैर नहीं।
उसके अन्न की सैर तो दुनिया में है
उसके ही नसीब में क्यों सैर नहीं।