मूल्यों को बदलते देखा है,
इन चौवन-पचपन सालों में !!
पढ़-लिखके अनपढ़ और हुए,
देखा है सभ्य समाजों में !!
अब कोई किसी से कम ही नहीं,
फिर गरज किसे यहाँ झुकने की !!
सब खुद को समझते हैं सक्षम,
परवाह किसे फिर रिश्तों की !!
गिरगिट भी अब लाचार हुआ,
मानव के अजायबख़ाने में !!
पहले ज़ुबान का था मतलब,
जो बोल दिया सो बोल दिया !!
ख़ुद ही एफिडेविट थे वे,
जो मोल किया सो मोल किया !!
जहाँ पेड़ लगाये थे पुरखों ने,
हम काट दिये सब स्वारथ में !!
अब और बतायें क्या-क्या हम,
माना जो जुड़ा है गलत नहीं !!
पर घटा है हममें जितना भी,
घटने की थी ना उम्मीद उतनी !!
घर जबसे बँटे परिवारों में ,
दिन-बदिन तड़प रहे टुकड़ों में !!
-- वेदव्यास मिश्र
सर्वाधिकार अधीन है