किस-किस से कहूँ मन का हाल,
हर कोई तो पहने है चेहरे में जाल।
जो सुनता है, वो बस सुनने को सुनता है,
पर समझे… ऐसा कोई नहीं इस काल।
मैं चीखी भी — तो शोर कहा गया,
मैं चुप रही — तो कमजोर कहा गया।
जब खुद को समेटा, तो स्वार्थी समझा,
जब बाँटा सब कुछ — तो बिखराव ही पाया गया।
मेरे आँसू भी अब साक्षी बन गए हैं,
जिनसे मैं लड़ी, वही मेरे अपने बन गए हैं।
कहाँ-कहाँ तक रोऊँ? किसको-किसको जताऊँ?
जब हर ग़म पे लोग हँसे — तो किससे मन की बात बताऊँ?
दिल में जो टूटा, वो शब्द बन न सका,
और जो जुबाँ पर आया — वो सच बन न सका।
अब साँसों में भी एक हिचकी बसती है,
हर रिश्ता — कोई सौदा, कोई हस्ती है।
कह दूँ जो सच — तो जला दिया जाऊँ,
रहूँ चुप — तो पत्थर समझ लिया जाऊँ।
मैं बोलूँ — तो काफ़िर, मैं सुनूँ — तो संत,
इस समाज में सच्चाई है सबसे बड़ी तंत।
अब मन की बात मैं मन में ही रखती हूँ,
हर दर्द को अपनी रूह में चखती हूँ।
न कोई अपना, न कोई पराया रहा,
अब मैं सिर्फ़ “मैं” हूँ — ये भी किसे भाया रहा?
अब चुप्पी ही मेरी सबसे बड़ी पुकार है,
क्योंकि दुनिया को दिखावा चाहिए — और मुझे सिर्फ़ एक सच… जो बेकार है।
– शारदा गुप्ता