बड़ी उमीदों का, झूठे वादों का कैसा नशा है! मगर हक़ीक़त में पैरों के नीचे धँसा नशा है।
वो चाहता है कि छू ले आसमानों को एक दिन, पर उसे ज़मीं के ज़ख्मों को भरने का नशा है।
जो दर्द सपनों के टूटने का था, अब वो सहता नहीं, रूह को इस दर्द से बचने का नशा है।
वो सुई, वो शीशी, वो धुआँ, सब ही तो झूठ है, पर इस फ़रेबी सुकून में खो जाने का नशा है।
गली-गली में ये बेजान चेहरे, ये सन्नाटा क्यूँ है? हर शहर को एक भयानक ख़ामोशी का नशा है।
हर माँ की आँखों में जो सूखा है पानी, वो सच है, और बेटे को ग़म भुलाने का कैसा नशा है।
अब तो ये भी नहीं पूछते, 'क्या हो रहा है तुम्हें?', हर शख्स को इस बर्बादी में जीने का नशा है।
ये जो ज़मीर है, मर चुका है ख़्वाबों के संग, हमें अपनी ही राख को छूने का नशा है।
हुकूमतों को लोगों को ख़ामोश रखने का कैसा नशा है! भारत को इस गहरी नींद से अब निकलना है।
गली-गली में ये बेजान चेहरे, ये सन्नाटा क्यूँ है? हर शहर को एक भयानक ख़ामोशी का नशा है।
हर माँ की आँखों में जो सूखा है पानी, वो सच है, और बेटे को ग़म भुलाने का कैसा नशा है।
अब तो ये भी नहीं पूछते, 'क्या हो रहा है तुम्हें?', हर शख्स को इस बर्बादी में जीने का नशा है।
जहाँ सब मर रहे हैं अपनी ही लापरवाही से, वहाँ बेचारगी के इस आलम में रहने का नशा है।
ये जो ज़मीर है, मर चुका है ख़्वाबों के संग, हमें अपनी ही राख को छूने का नशा है।
उन्होंने अपनी ही जवानी को आग लगा दी है, और इस जलते हुए शोले को देखने का नशा है।
हर रिश्ते को, हर भरोसे को तोड़ डाला उसने, उसे अब अपने ही घर को उजाड़ने का नशा है।
जो लोग बिकते नहीं थे, अब वो ख़रीदे गए हैं, ज़मीर को चंद कागज़ों पे बेचने का नशा है।
अब किसी चीख़ पर भी कोई पलटता नहीं है, इंसानों को पत्थर बन जाने का नशा है।
न कोई दवा असर करे, न कोई दुआ क़ुबूल, उन्हें ख़ुदकुशी के रास्ते पे चलने का नशा है।
ये दर्द भारत की रूह में गहरा उतर चुका है, इस बेबसी को अब बस ख़त्म ही होना है।
वो जो महफ़िलों में कहा है, हमें वो नज़र आए, ये जो ज़मीं पे नहीं है, हमें वो नज़र आए।
काग़ज़ों पे तो तरक़्क़ी का बड़ा शोर मचा है, असल सड़कों पे भी वो सुधार नज़र आए।
जहाँ दावा है कि हर शख़्स ख़ुश है और आबाद है, उस ख़ुशी के पीछे का भी तो सच नज़र आए।
हमें नहीं चाहिए अब वादे तुम्हारे और नारे, हमें तो आँखों में खोया हुआ संसार नज़र आए।
जो भरोसा था कि इंसाफ़ मिलेगा हर किसी को, टूटे हुए लोगों में वो किरदार नज़र आए।
गरीबों के भूखे बच्चों के पेटों का सच, हमें आँसुओं में लिपटा हुआ संसार नज़र आए।
ये जो इंसानियत का क़त्ल हुआ है सरेआम, उस भीड़ में खड़े हर शख्स का किरदार नज़र आए।
ये जो हवा में ज़हर है, ये जो पानी में गंदगी है, हमें अपनी ही करनी का तो इज़हार नज़र आए।
जहाँ मसीहा बनके आए थे, सब खो गए हैं कहाँ? अब तो नेताओं में भी कोई ईमानदार नज़र आए।
ये जो ज़मीन के नीचे दबी हुई है सच्चाई, उसे आसमानों पे चमकता हुआ अब नूर नज़र आए।
इस देश की मिट्टी को अब नशे से मुक्ति मिले, और नई नस्ल को एक हसीं कल नज़र आए।
- ललित दाधीच


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
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