मेरे अंदर के जख्मों को, नासूर कर रहा है,
एक दर्द मुझे लिखने पे मजबूर कर रहा है।
अब तक सबसे छिपा रखा था दर्द सीने में,
भीतर ही भीतर मुझे चकनाचूर कर रहा है।
न करूँ गर बयाँ तो हो जाऊँगा मैं पागल,
ये दर्द धीरे-धीरे मुझे, मुझसे दूर कर रहा है।
पहले यूँ ही बह जाते थे बन कर के आँसू,
बने जब शब्द दर्द उसे कोहिनूर कर रहा है।
यूँ तो मुझे अच्छा नहीं लगता था लिखना,
पर ये दर्द की ग़ज़ल ही मशहूर कर रहा है।
🖊️सुभाष कुमार यादव