घर की चौखट से नौकरी तक रहीं जिन्दगी।
अपना पराया भेद समझने में रहीं जिन्दगी।।
आईना देखने की फुर्सत मिली जब कभी।
खुद के सजने संवारने में कट रहीं जिन्दगी।।
जिंदगी की ढलान में सम्हलती तो कैसे मैं।
आँखों पर चश्मा उसकी धुन्ध में रहीं जिन्दगी।।
साँस भर हवा खुदा ने बख्शी मिली जरूर।
उसके न आगे न पीछे अस्मत में रहीं जिन्दगी।।
कुछ हट कर परोपकार न कर पाई 'उपदेश'।
एक के बाद एक जिम्मेदारियो में रहीं जिन्दगी।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद