सादगी बचपन से जवानी में आई ठसक।
ज्ञान के चक्षु खुल जाते तो रहती न कसक।।
जीना सुहाना कहलाता प्रेम अगर इठलाता।
तकरार होने के वाबजूद बनी रहती महक।।
अपनी पीड़ा अब सहेली जैसी लगने लगी।
लिपट जाती हूँ अकेले में बढ़ा लेती चमक।।
बुलाती कमरे की शून्यता न रहती मेरे बगैर।
प्यारे एहसास खातिरी करते मैं जाती बहक।।
समाप्ति की तरफ बढ़ रही जिन्दगी 'उपदेश'।
जो बीत गई वो लौटकर नही आती धमक।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद