टूटे जो बदरिया का मन,
बरसे अमृत धार रे,
बीज फटा धरती के अंतर,
बन बैठा आधार रे।
काँच ज्यों गिरा धरा पर,
चमका दीप उजास,
सीप टूटी तब ही तो,
मोती मिला प्रकाश।
वन की डाली टूटी जब,
गिरी धरा की गोद,
फिर नये अंकुर फूले,
भरे नूतन बोध।
गगन से तारा गिरा जब,
मंत्र फूटा भाव,
टूटन में भी देख सखी,
जग को मिलता चाव।
फिर तू क्यों रोता है मनवा,
जब भीतर टूटे प्राण?
शायद तुझसे ही हो पावन,
धरती का नव विधान।
कहीं तू झरना बन निकले,
कहीं बने तू गान,
टूटेगा जब अंतस तेरा,
जगे ब्रह्म का ज्ञान।
हिम्मत धर ले साधक रे,
‘राशा’ यही कहे —
जो टूटा है प्रीत में,
सो ही राम लहे।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड