लगा जैसे धरा ने
सुनहरे धूप–कणों से
गगन की काँच सी नीली थाली में
कनेर, चंपा, गुलाब की पंखुरियाँ
धीरे से सजाकर बिखराईं।
मंद बयार में झूमते
सरसों के पीले झंडों ने
खामोशी तोड़कर
मधुमक्खियों को गुनगुनाने के लिए
राग मधुरिम नई सुरों में गुनवाई।
तारों से पटी अमावस रात ने
रूपहली चाँदनी के आँचल में
मोरपंखी बादलों को सिरहाने रखा,
और आकाशगंगा के किनारे पर
किसी ने दीपक की बाती में
भक्ति का घी मिलाकर
ज्योति जगाई।
हृदय ने, साँसों ने, अधरों ने
इस तरह महसूस की छुअन —
जैसे सूखे कंठ में
पहली बूँद उतर आई।
सच,
बहुत दिन बाद
ऐसा लगा
प्रभु
जैसे तुम आ गए
मेरे आँगन
बिना कहे बिना बताये
अनायास ही ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड