चारों ओर असीम शून्य की चादर बिछी है,
मानो नभ ने अपनी साँसें रोक ली हों।
किन्तु मेरे अंतर की गहराइयों से—
अनसुने स्वर बार-बार उठते हैं,
जैसे किसी टूटी वीणा की करुण ध्वनि
मौन में भी गूँज रही हो।
चाँदनी रात,
धरती पर बिछी श्वेत राख-सी निस्तेज,
और मैं—
उस धुंधले उजाले में
अपने ही आँसुओं की परछाईं खोजता हूँ।
बादलों की चिर-भ्रमणशील छाया,
जैसे मेरी ही व्यथा को ओढ़े,
कभी पास आती है, कभी खो जाती है।
पर भीतर—
किसी अनंत पथिक के कदमों की आहट
अब भी सुनाई देती है।
शायद वही मैं हूँ—
अपनी ही प्रतिध्वनि बनकर लौटता हुआ,
जो कहता है—
“तुम शून्य के वासी नहीं,
अनंत की ध्वनि हो;
तुम्हारी निस्तब्धता में ही
सृष्टि का संगीत छिपा है।”
इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड